भीलवाड़ा । ’’मैत्री भाव जगत में मेरा सब जीवों से नित्य रहे’’ जब किसी व्यक्ति के मन में यह भाव अंकित हो जाता है तो वह सभी के प्रति विनम्रता का भाव रखता है। मारीच ही महावीर बनता है, महावीर ’’महावीर’’ नही बनता। यह समझते हुए सभी जीवों की आत्मा सिद्ध परमेष्ठी के समान है, यह मानना सबसे बढा विनय है। सभी के हित की भावना धारण करना, दूसरों के सम्मान को ठेस नहीं पहुँचाना सौलह कारण भावना में विनय सम्पन्नता भावना मानी जाती है। जैन दर्शन हर परिस्थिति में दूसरों के प्रति कोमल, मृदुभाव रखने की सीख देता है। आचार्यो ने कहा है कि जो झुकना नहीं जानता, वह पाषाण के स्तम्भ के समान है। हमें सिद्ध रूप प्राप्त करना है तो पहले अपने आप को बडा मानना छोडना होगा एवं दूसरों के प्रति विनय भाव धारण करना होगा। ’’जो मानते है स्वयं को बहुत बडे हैं, वे धर्म से अभी बहुत दूर खडे है’’। यह बात बालयति निर्यापक श्रमण मुनि श्री विद्यासागर जी महाराज ने बुधवार को सुधासागर निलय में विनय सम्पन्न भावना पर प्रवचन के दौरान कही। उन्होंने कहाकि साधु भी विनय तपाचार का पालन करता है, श्रावक महाराज के प्रति हाथ जोडकर विनय करते है, ...
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